मेरा प्रथम स्कूल
हमारा
घर एक मध्यम वर्गीय परिवार वाला घर था। पिता सरकारी नौकरी में मैनेजर थे और कलकत्ता
में तैनात थे। कहा जाता है कि वह अपने गांव के प्रथम-प्रथम ग्रेजुएट्स में से एक थे।
चूकि गांव के अनपढ़ जमात से निकलकर वह आगे बढ़े थे, इसलिए उनके मन में अपने बच्चों
को पढ़ाने-लिखाने की जबरदस्त ललक थी।
पर ललक
होना और उस ललक को संयम के साथ लागू करना, दो अलग-अलग बातें हैं। कुछ ऐसे ही कि अगर
भूख लगी हो और खाने का सामान मिल जाए तो एक ही बार में चार दिन का खाना खा लेना अपच
या बीमारी को न्यौता देने जैसा होता है।
मेरे
पिता जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उन्होंने सोचा, अपने बेटे को जितनी अच्छी शिक्षा
दी जा सके, देंगे। उस समय कलकत्ता में साउथ पाइंट स्कूल का बड़ा नाम था। सन
1972-73 के आसपास वह एशिया के बड़े स्कूलों में गिना जाता था। यह कलकत्ता का प्रथम
सह शिक्षा स्कूल था यानी पहली बार कोलकाता में लड़के और लड़कियां एक साथ इसी स्कूल
में पढ़ने आए। तब यह स्कूल रास बिहारी रोड के पास हिंदुस्तान रोड पर था। उसके पास ही
पापा का आफिस था। उन्होंने प्रयास किया, तो मेरा
दाखिला उसमें हो गया। इस तरह पापा की प्रथम इच्छा पूरी हुई कि बेटा एक अच्छे
स्कूल में पढ़े।
मैं जहां
कालीघाट में रहता था वहीं पास में एक बंगाली स्कूल था। मेरे मोहल्ले के अधिकांश बच्चे
जो कि बंगाली थे, उसी स्कूल में पढ़ने आते थे। बापी, टिंकू, पिंटू, झुम्पा, टिंटुबुरी,
सुपु न जाने कितने नाम हैं, जो मेरे साथ के थे। अब पापा को लगा कि जिस देश में रहते
हैं, वहां की भाषा भी तो बच्चों के आनी चाहिए। कलकत्ता में बंगाल को देश ही कहा जाता था। अगर आप किसी और प्रदेश
के हैं तो आपसे पूछा जाता था कि तुम्हारा कौन सा देश है। यहां देश से मतलब प्रदेश ही
होता था, कुछ गलत मतलब नहीं होता था। मेरा इंग्लिश स्कूल का समय दोपहर साढ़े बारह बजे
से होता था, और मैं तब तक फ्री होता था। इस बंगाली स्कूल का समय सुबह सात से ग्यारह
था।
अब पापा
जी के मन में अपने बेटे को और पढ़ाने की इच्छा होने लगी। बेटा खूब पढ़े-लिखे और आगे
बढ़े, इसकी कामना हर माता-पिता करते हैं। तो पापा ने एक दिन मुझे ले जाकर बंगाली स्कूल
में भी दाखिला दिला दिया। पांच-छह साल के बच्चे के लिए जैसा एक स्कूल, वैसा ही दूसरा
स्कूल, फिर इस स्कूल में तो अपने मोहल्ले के मित्र भी थे, इसलिए मजा आने लगा। अब अपनी
दिनचर्या हो गई—सुबह सात से ग्यारह तक बंगाली स्कूल, फिर साढ़े ग्यारह तक घर लौटना,
खाना खाना, तब तक अगले स्कूल के लिए बैग तैयार रहता था। मैं खाना खाता, उस बीच मां
अगले स्कूल के लिए मुझे तैयार करतीं। मेरा मौसेरा भाई हमारे साथ ही रहते थे और पापा के कार्यालय में काम
करते थे। उनका काम था ठीक बारह बजे मुझे लेकर निकलना और मुझे साउथ पाइंट स्कूल छोड़ते हुए आफिस पहुंचना। वहां
से चार बजे छुट्टी होती, तो वह फिर मुझे स्कूल से आफिस लाते। वहीं पापा के पास रहकर
मैं खाना खाता, फिर होमवर्क करता और आठ बजे जब पापा की छुट्टी होती तो उनके साथ घर
लौटता।
अब मेरी
यही दिनचर्या थी जिसमें खेलने के लिए कोई वक्त नहीं था। न ही मनोरंजन का कोई साधन था।
एक बार
बंगाली स्कूल की कक्षा में व्याकरण की पढ़ाई हो रही थी। मैडम ने माछ कैसे लिखे, पूछा। माछ यानी मछली। कहना चाहिए था कि म, उसमें आ की मात्रा और छ। पर
मैने कहा मा और छ यानी मात्रा को म से जोड़
दिया। नतीजन टिफिन टाइम में मुझे सजा दी गई कि मैं अकेला कक्षा में रहूंगा और टिफिन
भी न खा पाऊंगा।
उस दिन
मैं रोते हुए घर लौटा। अगले दिन स्कूल जाने से आनाकानी की और नहीं गया। कक्षा में मैम
ने दोस्तों से पूछा तो उन्होंने बता दिया कि कल के वाकये के कारण मैं स्कूल नहीं आया
था। बातों-बातों में मेरा पक्ष लेते हुए मेरे एक मित्र के मुंह से निकल गया-मैम बेचारा
दो-दो स्कूल में एक साथ पढ़ता है, इसलिए गलती हो गई होगी।
दो स्कूल
में- मैडम मुंह से निकला।
-हां
, वह यहां के बाद एक और स्कूल में जाता है।–दोस्त ने पूरी बात बता दी।
जानकर
मैम का मुहं खुला का खुला रह गया। जहां बच्चा एक स्कूल जाने से डरता है, वहीं मैं पांच
छह साल की उम्र में दो-दो स्कूलों में जा रहा था। उन्होंने तुरंत प्रिंसिपस मैम को
सूचना दी और अगले दिन ही पापा की स्कूल में पेशी हो गई।
पापा
जाकर प्रिंसिपस मैम से मिले। कक्षा वाली मैम भी साथ थीं और मैं तो था ही। प्रिंसिपस
मैम ने पापा से कहा-आप जानते हैं एक बच्चे को एक साथ दो-दो स्कूलों में पढ़ाना उस बच्चे
के साथ तो ज्यादती तो है ही, साथ ही कानूनन जुर्म भी है। आपका बच्चा ऐसे पढ़कर बड़ा
आदमी बने न बने पर उसकी दिमागी स्थिति कभी
भी बिगड़ सकती है। आप इसे तुरंत दोनों में से एक स्कूल से निकालिए।
पिता
जी चुपचाप सुनते रहे। बच्चे को तेजी से और से आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने जो किया,
वह अब उन्हें भी कचोट रहा था। उन्होंने मैम को सारी कहा और मुझे लेकर घर वापस लौट आए।
वह उस बंगाली स्कूल में मेरा आखिरी दिन था।
इस तरह
दो –दो नावों की सवारी से मुझे निजात मिली और मुझे एक बच्चे की तरह अपनी जिंदगी जीने
का अवसर मिला।
अब का स्कूल
अनिल
जायसवाल